यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने दुनिया को संकट में डाल दिया है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के सैन्य कदम के बाद कई लोग यह जानना चाह रहे हैं संघर्ष कैसे और क्यों शुरू हुआ. पुतिन को 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद से रूस की शक्ति और प्रभाव के नुकसान से गहरी शिकायत है. यूक्रेन पहले सोवियत संघ का हिस्सा था, लेकिन 1991 में उसने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की.
रूस की सीमा से लगे एक समृद्ध, आधुनिक, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक यूरोपीय देश के अस्तित्व को रूस के निरंकुश शासन के लिए खतरा माना जाता रहा है. यदि यूक्रेन के नेता अन्य पश्चिमी लोकतंत्रों की तर्ज पर अपने देश को पूरी तरह से सुधारने में सफल रहे तो यह पूर्व सोवियत देशों के लिए एक बुरी मिसाल कायम करेगा और रूसियों के लिए एक उदाहरण के रूप में काम करेगा जो एक अधिक लोकतांत्रिक देश चाहते हैं. पुतिन यह भी मानते हैं कि पश्चिमी लोकतंत्र कमजोर स्थिति में हैं. रूस को लगा कि यह एक प्रमुख सैन्य अभियान शुरू करने का उपयुक्त समय है.
यूक्रेन पर आक्रमण पहले के कई तरीके से किए हमले का विस्तार और वृद्धि है. यह एक युद्ध है जो वास्तव में 2013-14 में यूक्रेन के सम्मान को लेकर क्रांति के बाद शुरू हुआ, जिसे यूरोमैदान भी कहा जाता है. जब यूरोप के साथ घनिष्ठ संबंध चाहने वाले नागरिकों के व्यापक प्रदर्शन के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानकोविच को हटा दिया गया. यानकोविच ने विरोध को दबाने ने के लिए रूस से मदद मांगी थी.
क्या आक्रमण रूस के क्रीमिया पर कब्जा करने से जुड़ा है? सोवियत संघ के टूटने के समय क्रीमिया यूक्रेन का एकमात्र हिस्सा था, जिसमें रूसियों का मामूली बहुमत था. फिर भी, प्रायद्वीप की 55 प्रतिशत आबादी ने यूक्रेन की स्वतंत्रता के लिए मतदान किया. क्या यह शीतयुद्ध की फिर से शुरुआत है? शब्द ‘‘शीत युद्ध’’ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि को संदर्भित करता है जब सोवियत संघ और पश्चिमी देश एक दूसरे के खिलाफ गठबंधन कर रहे थे जो अनिवार्य रूप से पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच एक वैचारिक लड़ाई थी.शीतयुद्ध के चरम पर दुनिया की दो बड़ी सैन्य शक्तियां अमेरिका और सोवियत संघ विकासशील दुनिया में तोड़फोड़, दुष्प्रचार अभियानों और छद्म युद्धों के माध्यम से एक वैचारिक संघर्ष में लगे रहे. पुतिन उस समय की ओर मुड़ने की कोशिश कर रहे हैं जब सोवियत संघ और पश्चिम ने यूरोप में ‘‘प्रभाव के क्षेत्रों’’ को परिभाषित और अपेक्षाकृत स्थिर किया था. 2001 में अंतिम जनगणना के अनुसार स्वतंत्र यूक्रेन के 17.3 प्रतिशत नागरिकों ने खुद को जातीय रूसी के रूप में पहचाना. यह 1989 से लगभग पांच प्रतिशत अंक की गिरावट थी, जो सोवियत संघ के टूटने के बाद रूसियों के पलायन को आंशिक रूप से दर्शाता है.
हाल तक यूक्रेन की बड़ी आबादी में रूस की सकारात्मक छवि थी, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जिनका रूस के प्रति आलोचनात्मक या संदेहपूर्ण रवैया है. मौजूदा संघर्ष से हालात और खराब होना तय है. पुतिन ने यूक्रेन को असली देश क्यों नहीं कहा? आक्रमण से कुछ दिन पहले टेलीविजन पर भाषण में पुतिन ने कहा कि ‘‘आधुनिक यूक्रेन पूरी तरह से रूस द्वारा बनाया गया है.’’
रूस क्यों नहीं चाहता कि यूक्रेन नाटो देशों में शामिल हो?
नाटो एक सैन्य समूह है जिसमें अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे 30 देश शामिल हैं. अब रूस के सामने चुनौती यह है कि उसके कुछ पड़ोसी देश पहले ही नाटो में शामिल हो चुके हैं. इनमें एस्टोनिया और लातविया जैसे देश हैं, जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे. अब अगर यूक्रेन भी नाटो का हिस्सा बन गया तो रूस हर तरफ से अपने दुश्मन देशों से घिर जाएगा और अमेरिका जैसे देश उस पर हावी हो जाएंगे. अगर यूक्रेन नाटो का सदस्य बन जाता है और रूस भविष्य में उस पर हमला करता है तो समझौते के तहत इस समूह के सभी 30 देश इसे अपने खिलाफ हमला मानेंगे और यूक्रेन की सैन्य सहायता भी करेंगे.
रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन ने एक बार कहा था कि ‘यूक्रेन को खोना रूस के लिए एक शरीर से अपना सिर काट देने जैसा होगा.’ यही वजह है कि रूस नाटो में यूक्रेन के प्रवेश का विरोध कर रहा है. यूक्रेन रूस की पश्चिमी सीमा पर स्थित है. जब 1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रूस पर हमला किया गया तो यूक्रेन एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जहां से रूस ने अपनी सीमा की रक्षा की थी. अब अगर यूक्रेन नाटो देशों के साथ चला गया तो रूस की राजधानी मास्को, पश्चिम से सिर्फ 640 किलोमीटर दूर होगी. फिलहाल यह दूरी करीब 1600 किलोमीटर है.
यूक्रेन नाटो में क्यों शामिल होना चाहता है?
यूक्रेन के नाटो देश में शामिल होने की वजह 100 साल पुरानी है, जब अलग देश का अस्तित्व भी नहीं था. 1917 से पहले रूस और यूक्रेन रूसी साम्राज्य का हिस्सा थे. 1917 में रूसी क्रांति के बाद, यह साम्राज्य बिखर गया और यूक्रेन ने खुद को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया. हालांकि यूक्रेन मुश्किल से तीन साल तक स्वतंत्र रहा और 1920 में यह सोवियत संघ में शामिल हो गया. यूक्रेन के लोग हमेशा से खुद को स्वतंत्र देश मानते रहे.
1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो यूक्रेन सहित 15 नए देशों का गठन हुआ. सही मायनों में यूक्रेन को साल 1991 में आजादी मिली. हालांकि, यूक्रेन शुरू से ही समझता है कि वह रूस से कभी भी अपने दम पर मुकाबला नहीं कर सकता और इसलिए वह एक ऐसे सैन्य संगठन में शामिल होना चाहता है जो उसकी आजादी को महफूज रख सके. नाटो से बेहतर संगठन कोई और नहीं है जो यूक्रेन की रक्षा कर सके.
यूक्रेन के पास न तो रूस जैसी बड़ी सेना है और न ही आधुनिक हथियार. यूक्रेन में 1.1 मिलियन सैनिक हैं जबकि रूस के पास 2.9 मिलियन सैनिक हैं. यूक्रेन के पास 98 लड़ाकू विमान हैं, रूस के पास करीब 1500 लड़ाकू विमान हैं. रूस के पास यूक्रेन की तुलना में अधिक हमलावर हेलीकॉप्टर, टैंक और बख्तरबंद वाहन भी हैं.
विवाद का असली विलेन है अमेरिका
रूस और यूक्रेन के विवाद में अमेरिका की अहम भूमिका है. अमेरिका ने अपने 3000 सैनिकों को यूक्रेन की मदद के लिए भेजा है और उनकी तरफ से यह आश्वासन दिया गया है कि वे यूक्रेन की मदद के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. सच्चाई यह है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, यूक्रेन का इस्तेमाल सिर्फ अपनी छवि मजबूत करने के लिए कर रहे हैं. पिछले साल अमेरिका को अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी थी. इसके अलावा ईरान में अमेरिका कुछ हासिल नहीं कर पाया और तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उत्तर कोरिया लगातार मिसाइल परीक्षण भी कर रहा है. इन घटनाओं ने अमेरिका की सुपर पॉवर इमेज को नुकसान पहुंचाया है. यही वजह है कि जो बाइडेन यूक्रेन-रूस विवाद के साथ इसकी भरपाई करना चाहते हैं.
अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने भी यूक्रेन का समर्थन किया है. इन देशों का समर्थन कब तक चलेगा यह एक बड़ा सवाल है क्योंकि यूरोपीय देश अपनी गैस की एक तिहाई जरूरत के लिए रूस पर निर्भर हैं. अब अगर रूस इस गैस की आपूर्ति बंद कर देता है तो इन देशों में भयानक पॉवर क्राइसिस होगा.
किसके साथ खड़ा है भारत?
रूस-यूक्रेन के विवाद में भारत की स्थिति भी बहुत महत्वपूर्ण है. रूस और अमेरिका दोनों भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं. भारत अभी भी अपने 55 फीसदी हथियार रूस से खरीदता है जबकि अमेरिका के साथ भारत के संबंध पिछले 10 वर्षों में काफी मजबूत हुए हैं. जिस देश में यूक्रेन ने सबसे पहले फरवरी 1993 में एशिया में अपना दूतावास खोला वह भारत था. तब से भारत और यूक्रेन के बीच व्यापारिक, रणनीतिक और राजनयिक संबंध मजबूत हुए हैं. यानी भारत इनमें से किसी भी देश को परेशान करने का जोखिम नहीं उठा सकता.
रूस ने अब तक भारत-चीन सीमा विवाद पर तटस्थ रुख अपनाया है. अगर भारत यूक्रेन का समर्थन करता है तो वह कूटनीतिक रूप से रूस को चीन के पक्ष में ले जाएगा. शायद यही कारण है कि हाल ही में जब अमेरिका सहित 10 देश संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन पर एक प्रस्ताव लेकर आए भारत ने किसी के पक्ष में मतदान नहीं किया. भारत के लिए चिंता की बात यह भी है कि इस समय यूक्रेन में करीब 20,000 भारतीय फंसे हुए हैं जिनमें से 18 हजार मेडिकल के छात्र हैं.
भारत के रुख के पीछे कहीं यह वजह तो नहीं
रूस और यूक्रेन के बीच जारी तनाव में भारत के किसी का पक्ष न लेने की एक प्रमुख वजह हो सकता है – पाकिस्तान. दरअसल, यूक्रेन और पाकिस्तान के रक्षा संबंध बेहद मजबूत हैं। यूक्रेन ने ही पाकिस्तान को T-80D टैंक सलाई किए जिसके जवाब में भारत को रूस से T-90 टैंक हासिल करने के लिए तेजी दिखानी पड़ी. 2020 में पाकिस्तान के II-78 एयर-टू-एयर रीफ्यूलिंग एयरक्राफ्ट की रिपेयरिंग का ठेका भी यूक्रेन को मिला था. यूक्रेन में पिछले एक दशक से पाकिस्तान के राजदूत के रूप में सेना के किसी पूर्व अधिकारी को तैनात किया गया है. यह सब जाहिर करता है कि पाकिस्तान और यूक्रेन की दोस्ती गहरी है.
पाकिस्तान ने 2018 में रूस से 300 T-90 टैंक खरीदने चाहे थे मगर उसने मना कर दिया था. उसके बाद 2019 में भारत ने इन टैंकों की खरीद को हरी झंडी दे दी.जब पाकिस्तान मॉस्को से हथियार नहीं खरीद पाया तो उसने यूक्रेन का रुख किया. 2014 के बाद से चीन और यूक्रेन के आर्थिक संबंध भी मजबूत हुए हैं, हालांकि राजनीतिक रूप से वह रूस के साथ खड़ा नजर आता है.
यूक्रेन और रूस के रिश्ते को समझना बहुत मुश्किल है. यूक्रेन के लोग स्वतंत्र रहना चाहते हैं, लेकिन पूर्वी यूक्रेन के लोगों की मांग है कि यूक्रेन को रूस के प्रति वफादार रहना चाहिए. यूक्रेन की राजनीति में नेता दो गुटों में बंटे हुए हैं. एक दल खुले तौर पर रूस का समर्थन करता है और दूसरा दल पश्चिमी देशों का समर्थन करता है. यही वजह है कि आज यूक्रेन दुनिया की बड़ी ताकतों के बीच फंसा हुआ है.
Comments are closed.