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बिहार :’अच्छे दिन’ में भी संकट में जीने की लाचारी !

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डा. देवाशीष बोस

कोसी टाइम्स ,स्पेसल डेस्क 

आज भी बिहार हिंसा, रक्तपात, संगठित गिरोह का आतंक, सामानांतर सरकार, भूपतियों और भूमिहीनों में युद्ध जैसी स्थिति, बड़ी, मध्यम तथा छोटी जातियों के बीच बढ़ता विद्वेश, समाज तथा राजनीति का अपराधीकरण और भ्रष्‍टाचार में जी रहा है। जबकि एक समय बिहार देश्‍ की सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा था। आज इसकी स्थिति अत्यंत दयनीय है।

            ग्रामीण इलाकों में खेती की घटती आय और किसानों की बिगड़ती दशा के संबंध में उनके अंदर राजनीतिक चेतना नहीं है। काश्‍तकारों को पूंजीवादी और सामंतवादी शोषण से बचाने का उनके पास कोई आंदोलन नहीं है। दूसरी ओर दलित तथा आदिवासियों को भूमिहीन कहकर पूंजीवादी साजिश रची जा रही है। उनके मानस को इस तरह बनाया जा रहा है कि देश की कुल संपत्ति और उत्पादन के साधनों पर उद्योग, व्यापार या शासनतंत्र पर उनका कोई अधिकार न हो सके।

            प्राचीन जनपदों के नष्‍ट होने और नंद, मोर्य शुंग तथा गुप्तवंश के साम्राज्यों की समाप्ती के पश्‍चात बिहार में सामंतवादी व्यवस्था पलने लगी। पाल, तुर्क, पठान, मुगल तथा अंग्रेजों के समय सामंतवादी प्रवृत्ति का भरपूर विकास हुआ। वास्तविक शासक बड़े-बड़े भूपति बन गये। जिनके अधिन छोटी जातियों तथा आदिवासी समूहों के लोग जीते थे। तभी से इन कमजोर वर्ग के लोगों के उपर सामंतवादी उत्पीड़न का दौर प्रारंभ हुआ तथा ये कहर आज तक जारी हैं।

            बिहार का सामंतवाद सारे देश में चर्चा का विषय है। कानूनी तौर पर अभी सामंती अर्थव्यवस्था समाप्त है। लेकिन बेनामी जमीन के रूप में सबसे अधिक अवैध कब्जा बिहार में है। राजनैतिक, प्रशासनिक सत्ता में इन लोगों का वर्चस्व है। इन लोगों का गहरा संबंध औद्योगिक तथा व्यापारिक पूंजी के साथ है। प्रशासन और पुलिस में सामंतवादी तत्वों का प्रभाव बिहार में ज्यादा है तथा जाति उसका निर्णायक आधार है। त्रासदी यह है कि जमींदारी समाप्त होने के बाद भी सवर्ण मानसिकता वाले लोगों की पुरानी ठसक बनी हुई है। इस मानसिकता के रहते उनसे यह बर्दाश्‍त नहीं होता कि कल तक जो गरीब जनता उनकी प्रजा थी उसके समक्ष हाथ बांध कर खड़ी रहती थी, आज वह अपनी अधिकार और अपनी बराबरी का दावा करें। इस ठसक में पिछड़ी जातियों के कुछ नवधनाढ्य लोग भी शामिल हो गये हैं।

            वर्ण व्यवस्था के आधार पर जिस जाति प्रथा ने हमारे देश की नश-नश में विष घोल रखा है उसमें वर्ग संघर्ष का वर्ण संघर्ष में बदल जाना लाजिमी है। मान-मर्यादा, विद्या, सत्ता, भूमि, धन-सम्पत्ति और जीवन की अन्य सुविधायें यहां तक कि रूप-रंग पर भी उंची जातियों का कब्जा रहा है और आज भी है। अपमान, अशिक्षा, गुलामी, मजदूरी तथा गरीबी के साथ-साथ रूप-रंग की निर्धनता भी अछूत जातियों के हिस्से में आयी है। इसलिए जब पीडि़त तथा शोषित वर्ग अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाता है तो वर्ग की आवाज जाति या वर्ण की टकराहट में बदलने लगती है। फिलहाल बिहार में यही हो रहा है।

            दूसरा पक्ष यह भी है कि जमींदारी उन्मूलन के बाद बिहार में शूद्र समझी जाने वाली मध्य जातियों के किसानों में भूमिपति होने की भावना ने उनमें जाति गौरव का खोखला बोध पैदा किया और उनकी मानसिकता भी सवर्ण जैसी बना दी, इस मानसिकता ने उनका सीधा संघर्ष भूमिहीन दलित-आदिवासियों से पैदा कर दिया। ऐसी स्थिति में जाति बोध ने जितनी सेनाओं को जन्म दिया है, उनमें से अधिसंख्य अपनी सम्पत्ति, प्रभाव और सत्ता की रक्षा हेतु अपनी जाति के अपेक्षाकृत निर्धन लोगों को अपराधी जीवन की ओर मोड़कर उनका हिंसक संघर्ष में उपयोग करती है। परिणामतः बिहार में नक्सलवादी आंदोलन पनपा है। इसका मुख्य कारण आर्थिक गैरबराबरी न होकर सामाजिक अत्याचार रहा है।

            सामाजिक अत्याचार के मूल में जातीय वैमनस्य है। इसके अन्तर्गत दलितों को दबाये रखने की मानसिकता और राजनीतिज्ञों की उनकों बरगलाये रखने की प्रवृत्ति है। दलितों की दासता के सबूत मनुस्मृति में मिलना यह साबित करता है कि इस समस्या की पृष्‍ठभूमि कितनी पुरातन है। यह कुचक्र किसी का भी रहा हो यह आज भी खरा सत्य है कि हम अंतरिक्ष में कुलांचे भरने की तैयारियों के बीच दलितों के प्रति अपनी मानसिकता नहीं बदल पाये हैं। सवर्ण मानसिकता वाले लोग दलितों से जितनी कम दर पर मजदूरी कराना चाहते हैं उसे सम्मान भी उतना ही कम देना चाहते हैं। दरअसल गांवों में तथाकथित सवर्णों और दलितों के बीच असंतोष का मुख्य कारण मजदूरी नहीं सम्मान है। चूंकि दुर्भाग्य से अपने देश में आर्थिक स्थिति मान-सम्मान का बैरोमीटर है, इसलिए सामाजिक समता की लड़ाई आर्थिक आधार पर लड़ी जा रही है।

सामाजिक समता का एक बीमार पहलू यह भी है कि दलितों का उंचा उठता स्वाभिमान अक्सर अहं में बदल जाता है और वे अपने विकास को सवर्णों पर अपनी जीत मानते हैं। यही कारण है कि अक्सर ही दोनों पक्षों में टकराव का कारण मामूली घटनायें ही होती है। इस स्थिति का कारण यह है कि दलित उत्थान और दलित चेतना की गति सामाजिक सोच से आगे निकल गयी है। अभी भी हजारों गांव में दलितों और सवर्णों के कुंए अलग है और अगर गांव में एक ही कुंआ है तो यह परंपरा है कि सवर्ण दलित एक साथ पानी नहीं भर सकते हैं। ऐसा कुछ लोगों की उस सामंती सोच के कारण है, जिसके तहत वे यह जरूरी समझते हैं कि उनके गुजरने पर हर दलित का झूककर सलाम बजाना उसका फर्ज है।

वस्तुतः दलित-सवर्ण संघर्र्ष का मुख्य कारण समाज का जाति बंधन में जकड़े रहना है, हम कितना भी कहें कि जातिय भेद-भाव खत्म हो रहा है, लेकिन सच यह है कि यह सिर्फ वहीं पर खत्म होता जान पड़ता है जहां दलित विकास की सीढि़यां चढ़कर सवर्णों के बराबर आ गये हैं। यह दुखद ही है कि दलितोद्धार की लड़ाई आजादी की लड़ाई के दौरान ही शुरू हुई थी लेकिन आज आजादी हासिल होने के लगभग सात दशक बाद और समतामूलक संविधान होने के बावजूद हमारा समाज मनु महाराज के आख्यानों में लिपटा हुआ है। यह सिलसिला कांग्रेस, लालू और नीतीश राज में भी जारी है।

जातिभेद पर प्रहार कर दलितों के उत्थान का पहला गंभीर प्रयास 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना से शुरू हुआ था। इसके बाद दलितोद्धार के संघर्ष को जुझारू रूप महात्मा ज्योतिवा फुले ने दिया। ज्योतिवा फुले ने डा. अम्बेदकर द्वारा मनुस्मृति जलाने के वर्षों पहले यह कहा था कि यदि ब्राह्मण मनुस्मृति का गुणगान कर दलितों को हेय समझते रहेंगे तो एक दिन दलित इस ग्रंथ के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। लेकिन अब तो स्थिति दलितों द्वारा सवर्णों का सिर फोड़ने की बन रही है।

ज्योतिवा फुले के अगले नायक गांधी, सुभाष, अम्बेदकर, पेरियार रामास्वामी नायकर आदि रहे और आज भी दलित हितों के लिए कई संगठन और नेता सक्रिय है लेकिन आजादी के बाद से दलितोद्धार का संघर्ष राजनीति की रपटीली गलियों में फिसलता आ रहा है। लिहाजा नक्सलवादी आंच तेज हो रहा है। बिहार के वासियों में एक बेचैन आत्मा निवास करती है जो कुछ प्रकार के व्यापक आंदोलन के प्रति ग्रहणशील हो जाती है। बिहार के लोगों में आंदोलन प्रवणता यहां का सकारात्मक गुण है और यह क्रांतिकारी परिवर्तन का आधार बन सकती है। बिहार में हो रहे सारी हिंसात्मक घटनाओं के बावजूद ऐसा लगता है कि यहां के लोगों में एक सरलता है। उनकी हिंसा के नेपथ्य में कुटिल बुद्धि के बजाय अनाड़ीपन दिखाई देता है। यह एक प्रकार की संस्कृति विहीनता ही है। बिहार का शिक्षित वर्ग भी यहां की किसी संस्कृति के साथ अस्मिता के स्तर पर अपने को नहीं जोड़ता है। लेकिन यह तो कहा जा सकता है कि बिहारियों में एक उछाल है जो सिर्फ अंधकार के बदले देश को रोशनी की ओर ले जा सकती है।   

 

 

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