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सहरसा के समर में उठ पायेगा कांग्रेस का हाथ ?

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अन्ना यादव
राजनीतिक विश्लेषक @ कोसी टाइम्स.

बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज होते ही सहरसा जिले में भी राजनीतिक तापमान काफी बढ़ गया है.सहरसा में कभी लहटन चौधरी, रमेश चौधरी ,मोहम्मद सलाउद्दीन सरीखे कॉंग्रेसी दिग्गज हुआ करते थे. लेकिन जनता लहर(1977) में कांग्रेस की लुटिया सहरसा जिले में एक बार जो डूबी तो फिर तमीज से ‘हाथ’ कभी गर्दिश से बाहर नहीं निकल सका.पिछले कई वर्षोँ से सहरसा में पार्टी चुनाव में अपना खाता भी नहीं खोल पाई है.

अपने समय में तीनों कद्दावर नेता ना केवल जिले में बल्कि कोसी क्षेत्र के साथ साथ बिहार की राजनीति में अपना अपना अलग प्रभाव रखने के लिए जाने जाते थे.उस समय जिले के महिषी से ताल्लुक रखनेवाले लहटन चौधरी,सहरसा सदर से ताल्लुक रखनेवाले रमेश झा और सिमरी बख्तियारपुर से ताल्लुक रखने वाले चौधरी मोहम्मद सलाउद्दीन का राज्य के काबिना में अपना दबदबा हुआ करता था. राज्य कैबिनेट में तीनों अच्छे पद पर भी रहे थे.

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विधानसभा क्षेत्र सोनबरसा में कांग्रेस का जो सफाया जनता लहर में हुआ उस की भरपाई अभी तक नहीं की जा सकी है और ना ही आने वाले समय में ऐसी कोई उम्मीद ही दिखती है. सोनबरसा विधानसभा क्षेत्र से 1977 में गौरी शंकर झा चुनाव लड़े और हार गए तब से इस सीट से कांग्रेस नहीं जीत पाई है.सहरसा में फिलहाल ऐसा कोई चमत्कारी चेहरा भी नहीं दिखाई पड़ता है,जो जिले में कांग्रेस की डूबती नैया को पार लगा सके.जिले में जिसने कॉंग्रेस की थोड़ी बहुत लाज रखी थी वह चौधरी मोहम्मद सलाउद्दीन के उत्तराधिकारी महमूद अली कैसर भी अब ‘हाथ’ का साथ छोड़ एनडीए के साथ खड़े हैं. 2009 में खगड़िया से लोकसभा चुनाव हारने के बाद कैसर ने सिमरी बख्तियारपुर उपचुनाव से जीत कर कांग्रेस की लाज कुछ हद तक बचाई थी. बाद में महबूब अली भी पार्टी को अलविदा कह कर नरेंद्र मोदी की हवा में खगड़िया से 2014 में झोपड़ी(लोजपा) में बैठकर सांसद बन गये.इस तरह जो चेहरा कांग्रेस का सहरसा जिला में पार्टी के निष्ठावान परिवार के रुप में जाना जाता था उसने भी पार्टी से मुंह मोड़ लिया.

वहीं महिषी विधानसभा से हाथ को बुलंद रखनेवाले लहटन चौधरी जब वर्ष 1990 में बाहुबली आनंद मोहन से भारी मतों से हारे तब से क्षेत्र में कांग्रेस को आगे बढ़ने का मौका नहीं मिल सका है. कमोबेश यही हाल सहरसा सदर विधानसभा का भी रहा जहां से कांग्रेस के नेता रमेश झा प्रतिनिधित्व करते थे.राजनीतिक पंडित बताते हैं कि रमेश झा की राजनीतिक कार्यकुशलता व चुनाव लड़ने की कला की इंदिरा गांधी भी मुरीद हुआ करती थी. वर्ष 1990 के चुनाव में सहरसा सीट से रमेश झा के पुत्र सतीश चंद्र झा क्या हारे,तब से यहां से भी एक तरह से कॉंग्रेस की नैया डूब ही गई.

कोसी क्षेत्र में ले देकर अभी पार्टी के पास बड़े चेहरे के रूप में सुपौल की सांसद रंजीता रंजन ही है.एक समय में पार्टी से पूर्व सांसद लवली आनंद भी अपने हित के लिए जुड़ी थी,पर वह भी कब का पार्टी छोड़ चुकी है. सहरसा में कॉंग्रेस की इस दुर्गति पर पार्टी के छात्र युवा जिलाध्यक्ष सुदीप सुमन का कहना है कि जिले के कांग्रेसी चौधरी सलाउद्दीन साहब,रमेश झा साहब और लहटन चौधरी साहब की राह पर नहीं चल सके उसी का नतीजा आज पार्टी भुगत रही है.वहीं जानकारों का कहना है कि परंपरागत ब्राह्मण वोट बैंक और मुसलमानों के मुंह मोड़ लेने के कारण पार्टी की स्थिति सहरसा में बदतर हुयी है.हालांकि दबी जुबान से पार्टी के कई कार्यकर्ता यह कहते हैं कि ना जाने अब कब और किस चुनाव में पार्टी का खाता खुलेगा..!वैसे महागठबंधन के तहत में सहरसा में कोई विधानसभा सीट पार्टी के हिस्से में आती भी है या नहीं ,यह भी देखनेवाली बात होगी.महागठबंधन के साथ होने से पार्टी कार्यकर्ताओं में आस बंधी है कि कोसी में कम से कम एक-दो सीट पर जीतकर खो चुकी राजनीतिक जमीन को वापस हासिल किया जा सकता है.

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