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शिक्षा, स्वाधीनता एवं आत्मनिर्भरता जैसे अस्त्र से स्त्रियाँ होंगी सशक्त-ज्योति झा

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ज्योति झा लेखिका, कॉलम्निस्ट (साहित्यिक पत्रिका)

‘औरत त्याग की मूर्ति होती है’, सदियों से यह कहते, सुनते, समझते, और विश्वास करते, क्या औरत मूर्तिवत ही होकर रह गई है? चाहे दबी-दबाई आंतरिक इच्छाएँ हों, या परिवार की परम्पराओं की बेड़ियाँ, समाज की पिछड़ी सोच हो या फिर अपनों के बनाए स्वार्थपूर्ण नियम। अपने सपने, अपने अरमानों, और अपनी उम्मीदों को इन पायदानों के हासिये पर रखते, औरतें न केवल मूर्तिवत हो रही हैं, बल्कि पत्थरदिल भी बनती जा रही हैं।

तभी तो उनका दिल नहीं पिघलता जब किसी अन्य नारी की दुर्व्यवस्था को देख वे रीति-रिवाजों और घिसी-पिटी सोच के घूँघट के पीछे छुपकर, इसे ही अपना नीयती मान चुपचाप सहजता से कुरीतियों का हिस्सा बन जाती हैं। रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, बाल-विवाह, बेटियों पर अनावश्यक प्रतिबंध, भ्रूण-हत्या, दहेज प्रथा, अशिक्षा, आदि जैसे अभिशाप जहां व्याप्त हों, और इन बेड़ियों में जकड़ी महिलाएँ एवं बेटियाँ जहां अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूक तक नहीं, वहाँ उनके दबे अरमानों का सिसककर दम तोड़ना सहज ही प्रतीत होता है।

 

परंतु आज की स्त्रियाँ तो स्वाधीन हैं, आत्मनिर्भर हैं, अपने फ़ैसले स्वयं लेती हैं, शिक्षित हैं, जागरूक हैं, सफल हैं, ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन हैं, समाज और देश की व्यवस्था के संचालन में बराबर की भागीदार हैं। फिर ये पीछड़ी सोच और सामाजिक असंतुलन कहाँ व्याप्त है? क्या हम किसी और दुनिया की बात कर रहे हैं? या फिर समानांतर ब्रह्मांड की बात कर रहे हैं जो बिलकुल एक-दूसरे के विपरीत नज़र आते हैं?

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नहीं, हम तो इसी धरती की बात कर रहे हैं जहां एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाओ तो लगता है जैसे हम ‘टाइम ट्रैवल’ कर रहे हैं। कहीं संसार सम्पूर्ण रूप से विकसित प्रतीत होता है तो कहीं बुराइयों एवं नकारात्मकता के अंधकार में अभी भी स्थिर खड़ा नज़र आता है। लगता है मानो हम एक सदी से दूसरी सदी में पहुँच गए हों।
हाल ही में रणवीर सिंह की पिक्चर ‘जयेशभाई ज़ोरदार’ में यह बखूबी दर्शाया गया है। एक गाँव जो अभी भी पिछड़ेपन से ग्रस्त है और पुरुष-प्रधान की पारंपरा से ग्रसित है, वहाँ एक विकसित सोच वाले युवक की क्रांति की ज्योत से बदलाव आता है, और जिसका उद्देश्य अपनों को मिटाना नहीं, बल्कि अपनों की बुरी सोच का ख़ात्मा करना है। मिलीजुली प्रतिक्रियाओं के बीच यह पिक्चर कई सामाजिक मूल्य एवं सकारात्मक संदेश देने में सफल होती है। मंझी हुई अदाकारी के समक्ष कई हृदय-विदारक एवं विचारों को झकझोर कर रख देने वाली बातें दिल को छू लेती हैं।

क्या औरतों के प्रति सामाजिक बदलाव के लिए केवल पुरुषों को ही अग्रसर होकर क्रांति की लौ प्रज्ज्वलित करनी होगी? नहीं, यह ज्वाला तो हर औरत के अंदर व्याप्त है, बस उन्हें अपनी आत्मशक्ति, प्रबुद्धता, एवं आत्मविश्वास को जगाना है। और हाँ, अगर इसमें प्रकृति के दोनों पहिए, स्त्री और पुरुष, साथ मिलकर, सहयोग से, एवं एक दूसरे के पूरक बनकर हिस्सा लें, तो इसकी तीव्रता को और सम्बल मिलेगा।

‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का दृढ़ संदेश देती यह फ़िल्म पितृसत्तात्मक समाज के विरुद्ध आँखें खोलने एवं जागरूकता फैलाने का अभियान है। देश में अभी भी कितने पिछड़े वर्ग हैं जहां पुरुष और महिलाएँ रूढ़िवादी प्रथाएँ, नकारात्मक सोच, और प्रगतिपथ से उदासीन हैं। उन्हें जगना होगा तभी बदलाव आएगा और तभी सम्पूर्ण एवं सामूहिक उन्नति होगी। समाज में कई लोग हैं जो ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे आंदोलन से सर्वव्यापी जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे हैं। पुणे के डॉ गणेश राख, सवित्रीबाई फूले शैक्षणिक सेवा फ़ाउंडेशन, और ऐसे कई लोग एवं संस्थाएँ जो समाज के प्रेरक बन क्रांति एवं बदलाव के परिचालक हैं।

समाज का एक वर्ग अभी भी ऐसा है जहां एक डॉक्टर के लिए अपने मरीज़ एवं उसके परिवार जनों को यह बताना कि उनके घर लड़की ने जन्म लिया है, मृत्यु की खबर बताने जैसा कठिन प्रतीत होता है। ऐसे में, महाराष्ट्र के पुणे के रहने वाले डॉ. गणेश राख कई भारतीय डॉक्टरों में से एक हैं जिन्होंने जनता की मानसिकता को बदलने के लिए नई राह बनाने का फैसला किया। डॉ. गणेश राख के अस्पताल (मेडिकेयर हॉस्पिटल, पुणे) में जब भी किसी बच्ची का जन्म होता है, तो सारी फीस माफ कर दी जाती है। जिस तरह परिवारों ने एक बच्चे के जन्म का जश्न मनाया, डॉ. गणेश राख सुनिश्चित करते हैं कि उनका अस्पताल खुद मिठाई, केक, फूल, और मोमबत्तियों के साथ हर लड़की के जन्म का जश्न मनाए। शुरुआती दौर में अनगिनत कठिनाइयों का सामना करते हुए विगत आठ वर्षों में उनके इस नेक अभियान ‘बेटी बचाओ जन आंदोलन’ से देश-विदेश से करीब कई लाख निजी डॉक्टर, हज़ारों एनजीओ, और कई मिलियन स्वयंसेवक जुड़ चुके हैं, और लड़कियों को बचाने के उनके प्रयासों में योगदान कर रहे हैं।

बेटियों को बचाने और पढ़ाने के मुहिम में वरिष्ठ पत्रकार एवं समाज सेवक प्रसून लतांत द्वारा स्थापित ‘सावित्रीबाई फुले शैक्षणिक सेवा फ़ाउंडेशन’ भी सम्मिलित है। पुणे, महाराष्ट्र ही ऐसी जगह है जहां बेटियों को पढ़ाने के लिए सवित्रीबाई फुले ने क्रांतिज्योत जलाई थी, और यहीं से बेटियों को बचाने, भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप को रोकने, और स्त्री शिक्षा को महत्त्व देने के लिए, यह संस्था महिलाओं की विभिन्न समस्याओं को लेकर जागृत कार्य-पथ पर अग्रसर हुई है। ‘बेटियों की शिक्षा और सुरक्षा’ पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, बेटियों के संघर्ष एवं महिला सशक्तिकरण का प्रतीक ‘आनंदी’ पुस्तक के लोकार्पण, महिलाओं में बढ़ती आत्महत्या की समस्याओं पर परिचर्चा, आदि जैसे उत्कृष्ट कार्यों से यह संस्था अपने नेक उद्देश्य को उजागर कर रही है और महिलाओं में आत्मबल को वृहत कर रही है।

इन बदलावों से ही जागरूकता आएगी। शिक्षा, स्वाधीनता, एवं आत्मनिर्भरता जैसे अस्त्र से स्त्रियाँ सशक्त होंगी और महिला सशक्तिकरण का सही मायने में संचार होगा।

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