बिजली की चकाचैंध के युग में कुम्हारों के व्यवसाय को लगा ग्रहण
कुम्हार समुदाय के लोग पुश्तैनी धंधे को छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर रहे हैं।महंगाई के दौर में भी बाजार में इसकी उचित कीमत नहीं मिल पाती
आधुनिकता के इस दौर में भी दीये एवं डिबिये की परम्परा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। आज भी मधेपुरा जिले के लोग दिवाली के शुभ अवसर पर दीये जलाना नहीं भूलते हैं। हालांकि शहरी क्षेत्र में इसकी मांग कम हुई है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लोग दीये एवं डिबिया का ही उपयोग करते हैं। तभी तो दिवाली को लेकर समुदाय के लोगों द्वारा चाक चलाकर दिन भर मेहनत कर दीये एवं डिबिया बनाया जा रहा है।दीपावली नजदीक आते ही कुम्हारों के चाक घूमने लगे हैं। बड़ी संख्या में मिट्टी के दीये बनाने का कार्य कुम्हारों ने शुरू कर दिया है। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से त्योहारों पर स्थानीय उत्पादों की खरीदारी किए जाने के आह्वान से इस बार कुम्हारों में ज्यादा बिक्री होने की उम्मीद जगी है। चीनी सामानों का बहिष्कार भी इनकी खुशहाली में चार चांद लगाने के लिए तैयार है और अब तो पटाखे पर भी पूरी तरह रोक लगा दी गई है।
खो गया है व्यवसाय
बिजली की चकाचैंध के युग में कुम्हारों का व्यवसाय कहीं खो सा गया है। बाजार में तरह-तरह के उपलब्ध सजावट की सामग्री के कारण इस धंधे से जुड़े लोगों की आर्थिक हालत डगमगाने लगी है। सस्ता और शुभ होनें के बाद भी लोग मिट्टी के दीपों से दूर होते जा रहे हैं। लोग अपने घर आंगन में दीये और डिबियों का कम से कम उपयोग करना चाहते हैं। मिट्टी के दीपों की जगह ले रहा है बिजली से जलनेवाले कैंडल और डिबियों की जगह झालर,चैन एवं अन्य एलईडी बत्ती। कुम्हारों के यहां लगने वाली भीड़ अब इलेक्ट्रानिक दुकानों की ओर मुड़ गयी है। वर्तमान समय कुम्हार समुदाय के लोग पुश्तैनी धंधे को छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर रहे हैं।
खत्म हो रही है परम्परा
पर्व त्योहार के होते आधुनिकीकरण से परम्पराएं टूट रही है। युगों से बनी आ रही मिट्टी के दीपों की परम्परा एवं महत्व समाप्त होने से इतना तो तय है कि पूर्वजों से मिली संपत्ति एवं संस्कृति साथ छूटती जा रही है। ऐसे में कुम्हारों की पहचान तो समाप्त हो जायेगी और उनकी जिदंगी उन्ही के चाक पर खत्म हो जायेगी।
नहीं रही कोई उम्मीद
चौसा के महेश पंडित,अर्जुन पंडित,कलासन के राम पंडित सुलक्षण देवी बताती है कि चाक चला कर मिट्टी सने हाथों से चाक को घुमा-घुमा कर अपनी जिदंगी की गाड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। यही उनकी आजीविका है। दीवाली का इंतजार इन कुम्हारों को काफी पहले से हुआ करता था लेकिन अब ये हतोत्साहित हो चुके है। कई उम्मीद एवं आशाएं लिये ये महीनों पूर्व तैयारी में जुट जाते थे लेकिन बीते पांच छह वर्षों से इन्हें ऐसा लग रहा है कि आधुनिकता के दौर में वे काफी पीछे छूट गये है। अब इनकी जिदंगी की गाड़ी किसी खास स्टेशन या सिग्नल पर रूक सी गयी है।कुम्हार बिक्री के लिए दीये की अलग-अलग वैरायटी बनाने लगे हैं। कुम्हारों ने बताया कि 50 रुपए सैकड़ा में दीये बेचे जाते हैं लेकिन दीया बनाना ही परेशानी का सबब नहीं बल्कि बिक्री करने में भी काफी दिक्कतें होती है। धनतेरस से लेकर दीपावली के दिन तक दीये की बिक्री करते हैं। ऐसे में बाजार में जिस किसी भी दुकान के सामने फुटपाथ पर दीये की बिक्री करते हैं, उसका किराया देना पड़ता है। मिट्टी लाने व दीये बनाने से लेकर पकाने में जो खर्च होता है। उसके हिसाब से लाभ नहीं हो पाता। कहा कि कुम्हारों को सरकारी मदद दी जानी चाहिए जिससे मिट्टी गढऩे की कला बची रहे।
नहीं मिलती है सरकारी सहायता
दीवाली में दूसरों के घरों को रौशन करने वाला कुम्हार समुदाय के लोगों को सरकारी सहायता नहीं मिल पाती है। बावजूद इसके दो जून की रोटी एव परम्परा को कायम रचाने के लिये ये लोग पुश्तैनी धंधा को बचा कर रखें हुये है। कुम्हारों की माने तो इस महंगाई के दौर में भी बाजार में इसकी उचित कीमत नहीं मिल पाती है। इन्हे यदि सरकारी सहायता दी जाय तो इनके जीवन स्तर में सुधार हो सकता है।
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