सुशोभित सक्तावत
आपकी बात @ कोसी टाइम्स.
मैं नि:शंक भारतीय क्रिकेट टीम का समर्थन कर रहा हूं। बांग्लादेश के क्रिकेट कप्तान मशरफ़ मुर्तज़ा के एक कथित “आत्मालाप” का “जयगान” कल सुबह से देख रहा हूं। जो लोग उस “आत्मालाप” को शेयर कर रहे हैं,उनके नाम और चेहरे देखकर उनकी नीयत का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। “असद ज़ैदी” नामक एक हिंदी कवि ने अंग्रेज़ी में उस इबारत को साझा किया था, बाद उसके उसका हिंदी तर्जुमा चल पड़ा है।
मुर्तज़ा के “प्रलाप” को जिस मुस्तैदी से साझा किया जा रहा है, उसका तात्कालिक परिप्रेक्ष्य यह है कि कल एक क्रिकेट टूर्नामेंट के फ़ाइनल में भारत पाकिस्तान से खेल रहा है, जिसमें संभवतः भारत जीत सकता है। एक खेल स्पर्धा में भारत की जीत की “संभावना” मात्र को ही कुछ ऐसा “अपशगुन” समझा जा रहा है कि उसके अनुमान से ही उदारवादी खेमा असहज और व्याकुल है और उसके विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करने में जुट गया है।
मुझे याद आता है, टी-20 विश्वकप के दौरान आशीष नंदी ने कहा था कि मैं दुआ करता हूं कि भारत यह टूर्नामेंट नहीं जीत पाए, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो देश में “राष्ट्रवाद” की जो लहर बहने लगेगी, वह बहुत जघन्य होगी। मैं एक सामाजिक विमर्शकार के रूप में आशीष नंदी का आदर करता हूं, किंतु कहना ना होगा कि राष्ट्रवाद की अवधारणा मात्र से भयभीत होकर भारत की हार की कामना करने लगना निरी मूर्खता थी।
आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफ़ी के बहुप्रतीक्षित ख़िताबी मुक़ाबले से पहले तीन क़िस्म की बेचैनियां नज़र आ रही हैं।
1) उदारवादी वामवादी धड़े की बेचैनी, जो इस कल्पना से ही विचलित है कि कहीं भारत टूर्नामेंट ना जीत जाए।
2) धुर राष्ट्रवादियों की बेचैनी, जो पाकिस्तान के साथ भारत को किसी भी स्तर पर सहभागी नहीं देख सकते, जैसे कि कल होने जा रहा क्रिकेट मैच कोई मैत्रीपूर्ण जलसा हो।
3) क्रिकेट से घृणा करने वाले सामान्यजन, जो कि हमेशा इसी बात से क्षुब्ध रहते हैं कि क्रिकेट के नक़्क़ारख़ाने में उनकी तूती को वह इज़्ज़त क्यों नहीं बख़्शी जा रही, जिसकी कि वह हक़दार है।
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वाम-उदारवादी धड़ा अपने अनुकूल “नैरेटिव” रचने में हमेशा से कुशल रहा है।उसकी मतिमंदता का यह आलम है कि वह अपने मूल पूर्वग्रहों से पूरी तरह से विपरीत दिशा में भी यात्रा कर सकता है, बशर्ते दक्षिणपंथ की उसकी जो समझ है, उसका किसी भी स्तर पर प्रतिकार करने की चेष्टा में वे सफल हो सकें।
मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं, यह आपको तब समझ आएगा, जब आप यह देखेंगे कि मशरफ़ मुर्तज़ा के जिस प्रलाप को सुबह से वामपंथी चूहे की चिंदी की तरह उठाए घूम रहे हैं, वह आख़िर है क्या।
मुर्तज़ा ने कहा है : “देश के मुक्ति योद्धाओं ने गोलियों का सामना पैसे के लिए नहीं किया। वे हीरो थे, परफ़ॉर्मर नहीं। हीरो क्रिकेटर रक़ीबुल हसन था, जो मुक्तियुद्ध के पहले अपने बल्ले पर “जय बांग्ला” लिख कर मैदान पर उतरा था।”
घोर राष्ट्रवाद की हिमायत करने वाली और उसके समक्ष खेल और कला को गौण और हीन बताने वाली इस इबारत को वे ही वामपंथी उठाकर घूम रहे हैं, जो स्वयं कलात्मक अभिव्यक्ति के स्वघोषित संरक्षक हैं और राष्ट्रवाद से अपनी अस्थियों के भीतर तक घृणा करते हैं!
अगर कल के मैच में विराट कोहली अपने बल्ले पर “जय हिंद” लिखकर उतरेंगे तो क्या मेरे वामपंथी मित्र इससे गद्गद् होंगे? क्या वे स्वयं सीमा पर लड़ रहे उन “मुक्ति योद्धाओं” की शान में क़सीदे पढ़ेंगे, जिनकी विरुदावली मुर्तज़ा गा रहे हैं?वामपंथियों के दोहरे चरित्र का सबसे अच्छा उदाहरण यह है कि उन्हें “भारतीय राष्ट्रवाद” से घृणा होती है, और अन्य राष्ट्रीयताओं की अस्मिता के प्रति वे अतिशय संवेदनशील रहते हैं।
जबकि वास्तव में “राष्ट्र-राज्य” एक सर्वमान्य राजनीतिक अवधारणा है! दुनियाभर के लोग अपने-अपने देशों की खेल-टीमों का समर्थन करते हैं, अपने-अपने शहर की क्लब-टीमों का झंडा उठाकर घूमते हैं और कोई पश्चिमी बुद्धिजीवी कभी इसे “फ़ासिज़्म” की आहट नहीं मानता और इसे इतना निरापद माना जाता है कि वास्तव में यह आकांक्षा की जाती है कि लोग युद्ध के बजाय खेल और कला के बारे में अधिक विचार करें।
मुर्तज़ा ने कहा : “मैं काहे का हीरो हूँ? मैं आपका मनोरंजन करने के पैसे लेता हूँ। मैं परफ़ॉर्मर हूँ, जैसे फ़िल्मी सितारे होते हैं।” यहां पर मुर्तज़ा के लहज़े में फ़नकारों और कलाकारों के हुनर के प्रति निहित हिक़ारत की टोह लीजिए, साहेबान! मुर्तज़ा ने कहा : “हां, मैं क्रिकेट खेलता हूँ, लेकिन क्या मैं गेहूं उगा सकता हूं? ईंट जोड़ सकता हूँ? हीरो बनाना है तो डॉक्टर को, किसान को, मज़दूर को बनाइए।”
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लेनी रेफ़ेंस्तॉल ने वर्ष 1934 की “न्यूरेमबर्ग रैली” पर केंद्रित एक नाज़ी प्रोपेगंडा फ़िल्म बनाई थी : “ट्रायम्फ़ ऑफ़ विल।” उसमें अदोल्फ़ हिटलर को हम किसानों और सैनिकों को संबोधित करते देख सकते हैं और आपको आश्चर्य होगा कि उसमें हिटलर ने ऐन यही बातें कही हैं, जो आज मुर्तज़ा कह रहा है, और जिसकी हिमायत वामी कर रहे हैं!
हिटलर का आग्रह था कि नागरिकों में किसान, जवान और मजदूर श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे राष्ट्र की सेवा कर रहे होते हैं, इनकी तुलना में बु्द्धिजीवी, कवि, कलाकार नगण्य हैं, क्योंकि वे अपनी ख़याली दुनिया में जी रहे होते हैं। यह सोचना कि एक डॉक्टर एक लेखक की तुलना में श्रेष्ठ है, निहायत ही लचर, पूर्वग्रहग्रस्त और दुर्भावनापूर्ण सोच है। यह वस्तुत: विशुद्ध “फ़ासिस्ट” सोच है, जो कलात्मक अभिव्यक्ति से भयभीत रहती है और उसकी तुलना में राष्ट्र को अधिक प्रणम्य स्वीकार करती है।
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सुबह से वामपंथी-उदारवादी “राष्ट्रवाद” की अभ्यर्थना में लिखी गई इस इबारत को “भारतीय राष्ट्रवाद” के विरोध में लिए घूम रहे हैं और यह पहली बार नहीं है। ये वही लोग हैं, जो “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” और “मानवाधिकार” का सबसे ज़्यादा शोर मचाते हैं, जबकि उनकी “विचारधारा” ने “व्यक्तिगत स्वतंत्रता” और “मानवाधिकार” की ही सबसे अधिक संस्थागत रूप से हत्या की है। “पाखंड” वामपंथ का मूल चरित्र है।
“असद ज़ैदी एंड कंपनी” से मेरा आग्रह है कि यह मुलम्मा उतार फेंकें और खुलकर कहें कि आप कल होने वाले चैंपियंस ट्रॉफ़ी मुक़ाबले में भारतीय टीम का समर्थन नहीं कर रहे हैं और उल्टे मन ही मन भारत की पराजय की कामना कर रहे हैं। अगर आप ऐसा खुलकर कहेंगे तो वह ज़्यादा ईमानदार होगा। महेंद्र सिंह धोनी का सिर काटने की मंशा जताने वाली बांग्लादेशी टीम के हारे हुए कप्तान की लचर बातों की आड़ लेकर वे स्वयं को और हास्यास्पद ही बनाएंगे।
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मैं तो नि:शंक यही कहूंगा कि कल होने वाले क्रिकेट मैच को अगर एक क्रिकेट मुक़ाबला ना भी मानें तो भी वह प्रतीकात्मक रूप से “धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र” बनाम “मज़हबी सैन्यतंत्र” का मुक़ाबला तो है ही और केवल “राक्षसी” ताक़ते ही कल के मैच में पाकिस्तान का समर्थन कर सकती हैं, क्योंकि पाकिस्तान बुराई का प्रतीक है और पराजय का अधिकारी है!
मैं आज होने जा रहे मैच में खुलकर भारतीय क्रिकेट टीम का समर्थन कर रहा हूं। और जो मेरे साथ नहीं हैं, वे पाकिस्तान के साथ हैं, ऐसा मानने में मुझे रत्तीमात्र भी दुविधा नहीं है! एवमस्तु।
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