रोहित परमार
राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक,कोसी टाइम्स.
बिहार में दलित बेजुबानों को लालू ने बोलना सिखाया और नीतीश ने लड़ना… अच्छी बात हैं…अपने हक के लिए लड़ने में कोई बुराई नहीं है…नीतीश जब सत्ता में आए तो एेसा लगा कि बिहार अब सकारात्मक राजनीति की ओर रूख कर चुका है…लोगों को लगने लगा कोई है जो विकास की राजनिती करना चाहता है … बदहाल बिहार को उसका नेता मिल चुका था…सड़क,बिजली ,शिक्षा,स्वास्थ्य,पानी बेरोजगारी, अपराध जैसे बुनियादी चुनौतियों से निपटना नीतीश के लिए आसान नहीं था…मजबूत इच्छाशक्ति वाले नीतीश ने बदहाल बिहार मे काम करना शुरू कर दिया …अब सड़कें बनने लगी…स्वास्थ्य सुविधाओं में जबरदस्त सुधार हुआ…प्रशासन जनता के लिए सजग हुआ…अपराध का ग्राफ नीचे आ गया…देखते ही देखते देशभर मे बिहार चर्चा का बिषय बन गया…बिहार को विकसित तो नहीं कह सकते लेकिन विकासशील जरूर हो गया था…5साल बीत गया… आईसीयू मे वेंटीलेटर के सहारे सांस ले रहे बिहार को नीतीश ने एक नई जिंदगी दी…5साल बहुत कम थे बिहार जैसे राज्य को पटरी पर लाने लिए…
सूबे में फिर से विधानसभा चुनाव हुआ…नीतीश की पलटन को जनता ने रेकॉर्ड तोड़ वोटों से जिताया…शिक्षा और बेरोजगीरी ये दो चुनौतियां ऐसी थी जिससे सरकार अबतक नहीं निपट सकी थी…बहरहाल सरकारी स्कूलों में नियुक्तियाँ शुरू की गई…ये एक तरह से अच्छी और सकारात्मक पहल थी,लेकिन शिक्षकों की नियुक्तियों का पैमाना इंटर पास होना बहुत बड़ी चूक थी…लालू ने मूर्खों को डिग्री बांटी और नीतिश ने नौकरी…बिहार के पतन की दोबारा शुरूआत हो चुकी थी.जिन शिक्षकों को प्राथमिक शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया था,उन्हें वर्णमाला तक की जानकारी नही थी..नौनिहालों के भविष्य के साथ यह अब तक का सबसे बड़ा और भद्दा मजाक था.विकास की राजनीति अब वोट बैंक की राजनीति में तब्दील हो चुकी थी.नीतिश ने बिहार के दलित को दो हिस्सों में बांट दिया और दूसरे हिस्से को महादलित नाम दे दिया,पर इससे दलितों के दिन नही बदले.नीतिश ने राजनीति में उन्हें आरक्षण दे दिया..पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक दलितों की भागीदारी बढ़ने लगी..कई दबंग परिवारें की राजनीतिक विरासत एक झटके में ख़त्म हो गयी…सूबे में मंत्रियों-संत्रियों के साथ-साथ अब मुखिया- सरपंच भी दलित होने लगे..बिहीर की राजनीति में ये बड़ा बदलाव था..लोकसभा चुनाव 2014 में प्रधानमंत्री बनने की लालसा ने बिहार की राजनीति को चौपट कर दिया.दो दशक पुराना गठबंधन टूट गया…नीतिश की चौधराहट बरकरार रही,पर मोदी लहर में बिहार भगवा रंग से रंग चुका था.हार की बौखलाहट से तिलमिलाये नीतिश ने नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया..शायद उन्हें अब बिहार की जनता से संवेदना की उम्मीद थी.उन्होनें वही गलती की जो एक जमाने में लालू ने राबड़ी को मुख्यमंत्री बना कर किया था…खैर लालू होशियार निकले,इसलिए उन्होनें सत्ता की चाबी घर में ही रखी.
नीतिश ने मांझी को मुख्यमंत्री बना कर खुद को दलितों का पैरोकार बता दिया..पर,बिहार की राजनीति में अभी असली मोड़ आना बाकी था..मतलब फिल्मी मोड़…नीतिश के भरोसेमंद मांझी बागी हो गए..अपने बयानों से देशभर में सुर्खियाँ बटोरने लगे.नीतिश के कबूतर को अब पंख लग चुका था..अब देर हो चुकी थी.सूबे में मांझी की बयार चल रही थी..नितिश की फिरकी उल्टी पड़ती नजर आ रही थी..सारे मिथक टूट गये..प्रधानमंत्री बनने की लालसा में नीतिश मुख्यमंत्री की कुर्सी भी गंवा बैठे..आज खुद के लिए उन्हें राजनीतिक जमीन तलाशना पड़ रहा है.शायद नीतिश भूल गये थे कि खेल राजनीति का हो या शतरंज का,एक गलत चाल मात के लिए काफी होता है..शतरंज के बिसात पर अगर प्यादा वजीर के खाने तक पहुंच जाये तो वो वजीर बन जाता है..बिहार की मौजूदा राजनीति किस करवट बैठेगी ,ये फिलहाल कहना बहुत मुश्किल है..बहुत ज़्यादा मुश्किल.
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