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तटबंधों की तबाही से त्रस्त हैं लोग

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डा. देवाशीष बोस

नदियों पर तटबंधों के निर्माण के बाद बिहार तथा नेपाल में बाढ़ से तबाही बढ़ी है और समाज में भांति-भांति की विकृतियां आई है। इन विसंगतियों से नीति निर्धारण करने वाले सक्षम लोग अपरिचित ही रहे हैं। अब भ्रम पैदा कर दिया गया है कि बाढ़ या जल जमाव एक तकनीकी समस्या है। इसका समाधान उन्हीं लोगों को करना चाहिए जो इसके लिए अधिकृत हैं।

    अंग्रेजों ने 1854 में दामोदर नदी को नियंत्रित करने के लिए उसके दोनों ओर बांध का निर्माण कराया लेकिन 1869 में अंग्रेजों ने दामोदर को बांध से मुक्त करना उचित समझा तथा हिन्दुस्तान में अपने अंतिम क्षण तक किसी नदी को बांधने का प्रयास नहीं किया। लेकिन भारत से जाते जाते उन्होंने दामोदर और कोसी को नियंत्रित करने का शोशा छोड़ गये। आजाद भारत में दामोदर समूह को मैथन] पांचेत] तिलैया] कोनार जैसे बांधों से बांधा गया तथा कोसी को 125 किलोमीटर तक तटबंधों में कैद किया गया। इसके बाद अन्य नदियों को भी बांध कर कहर बरपाया गया।

    देश की आजादी के बाद पचास के दशक में बाढ़ नियंत्रण के लिए नदियों के किनारे तटबंध बनाना प्रारंभ हुए, जिसकी लम्बाई 1]987 में प्रायः 14]511 किलोमीटर थी। जिनमें से बिहार में ही 2]756 किलो मीटर तटबंध बना था। बिहार में तटबंधों की लम्बाई 1997 में 3]564 किलोमीटर हो गयी। प्रारंभ में इन तटबंधों के कारण बाढ़ नियंत्रण की बात होती रही। लेकिन सत्तर के दशक में बाढ़ नियंत्रण की धज्जियां उड़ गयी और इस तकनीक की खामियां सामने आने लगी। साल 2008 में नेपाल के कुसहा के पास कोसी तटबंध के टूटने से बिहार के पांच जिलों में तबाही मची थी।

    बालू और मिट्टी से नदियों के तल उपर उठने लगे। जल निकासी वाधित होने लगी। तटबंधों का टूटना रोजमर्रा की घटना बनने लगी। लोगों को बाढ़ की विभिशिका झेलने की आदत तो जरूर थी पर यह जो तटबंधों के टूटने के कारण पानी के थपेड़े पड़ने लगे थे उसकी आदत नहीं थी। दूसरी ओर रेल लाईन, सड़कों और नहरों आदि के विस्तार ने जल जमाव को बढ़ावा दिया। जल जमाव के कारण कृशि पर बुरा प्रभाव पड़ा और बेरोजगारी बढ़ी तब लगा कि नदी को बांध कर बहुत अच्छा नहीं हुआ।

    नदियां इलाके का पानी निकालने के बजाय क्षेत्र में पानी फैलाने का काम करने लग गयी। नदियों के आस-पास रहने वाले लोग दो खेमों में बंट गये। एक ओर वह लोग जो तटबंधों के बीच फंस गये थे और दूसरी ओर वह जो तटबंधों के बाहर बसे थे। वर्शात में जब नदी का पानी बढ़ेगा तो अंदर रहने वाले लोगों के सर से गुजरेगा और इसके बचाव का एक ही रास्ता है कि वह तटबंध काट दे जिससे नदी का पानी बाहर बहे और अगर ऐसा हो जाता है तो बाहर वाले बेमौत मारे जायेंगे। इससे बांध के अंदर और बाहर के समाज में जबर्दस्त कटुता आयी। बिहार में समस्तीपुर] कटिहार] सुपौल] सहरसा] दरभंगा तथा मधुबनी आदि स्थानों में यह कटुता विद्यमान है। इसका ईलाज लोगों के बीच खाद्यान्न] कपड़े और दवा बांट कर किया जाता रहा है।

    बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबंध की योजना जब असफल साबित हुई तो तकनीकी रूप से बड़े बांधों के निर्माण से बाढ़ रोकने का प्रस्ताव दिया जा रहा है। प्रस्तावित बराह क्षेत्र बांध बन जाने से सुपौल] सहरसा] मधेपुरा तथा मधुबनी के निचले इलाकों में बाढ़ या जल जमाव की स्थिति पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। नेपाल में बराह क्षेत्र के पास जहां कोसी बांध का स्थल प्रस्तावित है वहां कोसी का जलग्रहण क्षेत्र 59]550 वर्ग किलोमीटर है। उक्त स्थल से भीमनगर बराज के बीच में नदी का जलग्रहण क्षेत्र 2]266 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाता है और असके नीचे भारतीय क्षेत्र में कोसी का अतिरिक्त जलग्रहण क्षेत्र 11]410 वर्ग किलोमीटर है। इस प्रकार कोसी का 13]876 वर्ग किलोमीटर जलग्रहण क्षेत्र बराह क्षेत्र बांध के नीचे पड़ता है। यह बागमती के जलग्रहण क्षेत्र से थोड़ा ही कम है और कमला के जलग्रहण क्षेत्र का लगभग दुगुणा है। बराह क्षेत्र बांध बने या न बने इतना पानी तो कोसी तटबंधों के बाहर अटकेगा ही जहां जल जमाव की स्थिति यथावत बनी रहेगी। तटबंधों के बीच बांध से पानी छोड़ा ही जायेगा और वहां भी बाढ़ की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

    बराह क्षेत्र बांध की बात 1946 से चल रही है और तब से अब तक का समय केवल तसल्लियों पर बीता है। लगभग सात दषक का अर्सा केवल उम्मीदें दिलाकर बिता देना आसान काम नहीं है। यदि बराह क्षेत्र बांध इतना ही जरूरी है और इतना ही सम्बद्ध पक्षों के लिए हितकारी है तो इसे यथाशीघ्र् बनाना चाहिए। इस दौरान हमारे देश में बारह प्रधानमंत्री हुए और लगभग सभी बिहार और कोसी के बाढ़ से आहत हुए हैं। बराह क्षेत्र बांध के संबंध में द्विपक्षीय वार्ता की आवश्यकता पर भी इनलोगों ने बल दिया है। इधर पानी और बिजली के मसलों पर विगत चंद वर्शों से अन्तर्राश्ट्रीय सहयोग की बात जोर-शोर से उठाई जा रही् है।

    भारत और नेपाल के बीच में कोसी या गंडक आदि बांधों का मामला लगभग 1947 से ही लटका हुआ है। 1992 के बाद भारत के पश्चीमी तट पर नेपाल को व्यापारिक मार्ग दिया गया। तत्पश्चात भारत को कोसी पर बनने वाले प्रस्तावित बराह क्षेत्र बांध का अन्वेशण और योजना का प्रतिवेदन तैयार करने की अनुमति मिली। महाकाली परियोजना आदि पर भी समझौता हुआ। हालांकि नेपाली जनमानस और मीडिया इस परियोजना के प्रति आश्वस्त नहीं है।

    इन योजनाओं के लिए संसाधन बड़े विचित्र दौर से गुजर रहे हैं। विगत दस वर्शों से विश्व बैंक द्वारा इस तरह के निर्माण में दी जाने वाली सहायता में भारी कमी आयी है क्योंकि लगभग सम्पूर्ण विश्व स्तर पर इन संरचनाओं का जबरदस्त विरोध हो रहा है। विदेशी शक्तियां इन योजनाओं के आस-पास मंडरा रही है। जापान की एक ग्लोवल इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड रिसर्च फाउन्डेशन भारत और नेपाल के बीच अपने ताने-बाने बुन रही है।

    आज नदियां किसी न किसी तकनीक या राजनीतिक सनक का शिकार है। हमने पहले से ही बहुत सी नदियों पर आधी-अध्ूरी योजनाएं बनाकर मुहूर्त कर रखा है। कहीं केवल सिंचाई काॅलोनी बनी है तो कहीं केवल शिलान्यास का पत्थर लगा है। अब आषंका व्यक्त की जा रही है कि नदियों पर एक नये सिरे से हमला षुरू होगा और आज जो नदियां स्वतंत्र है कल उसे कैद कर लिया जायेगा। अब ज्यादा दिनों तक यह मामला किसी एक प्रांत या देश का नहीं रह पायेगा। लिहाजा बांध की उपादेयता पर आज पुनर्विचार कर स्पश्ट नीति निर्धारण की आवश्यकता है। ताकि बांध के अंदर और बाहर रह रहे लोगों पर जल कहर न बरपे और जल संसाधनों का भरपूर इस्तेमाल कर जीवन स्तर उन्नत किया जा सके।      

     

 

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