” भ्रष्टाचार”
जनता को सपने दिखाकर
वोट के लिए गिड़गिड़ाता है
खुशियों से झोली भर दूंगा
ऐसे सपने दिखता है
हो जाती है जब इनकी जीत
सपना सपना रह जाता है
करना तो इन्हे कुछ नहीं रहता
बस भ्रष्टाचार बढ़ जाता है।
दौड़ दौड़ के दफ्तर में
चप्पल घिस घिस टूट जाता है
जब तक ना दो इनको पैसे
अरसों ऐसे दौड़ता है
पैसे देकर करतें हैं गलती
ये समझ क्यूं ना आता है
करना तो कुछ नहीं होता
बस भ्रष्टाचार बढ़ जाता है।
जिस थाली में खाना खाता
ये छेद उसी में करता है
गरीबों की परवाह ना करके
खुद की जेब ये भरता है
पैसे की भूख में ये दरिंदा बन जाता है
करना तो कुछ नहीं होता
बस भ्रष्टाचार बढ़ जाता है।
खून चूसकर जनता का
ये अपना राज चलाता है
एक बार में जेब नहीं भरता
दोबारा सरकार बनाता है
गद्दी की खातिर ये
अपनों से लड़ जाता है
करना तो इन्हे कुछ नहीं होता
बस भ्रष्टाचार बढ़ जाता है।
कवि : कुणाल आनंद
दरगाहीगंज,अररिया
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