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वोटर खामोश,नेताओं के उड़ते होश…अबकी बार बिहार में किसकी सरकार…!

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अनुपम सिंह ,स्पेशल डेस्क @ कोसी टाइम्स.
बिहार की राजनीति को समझ पाना सूर्य को दीये दिखाने जैसा है क्योंकि बिहार में हर नेता अपनी-अपनी नई विचारधारा प्रस्तुत करता है, हर कोई अपने-आप को राजनैतिक विशेषज्ञ / विश्लेषक समझता है और पता नहीं वहाँ की आम-जनमानस भी कभी समय-के-साथ तो कभी समय-के-विपरीत चलने की हिम्मत रखती है।
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण आदि जैसे महान और सर्वमान्य नेता देने वाला बिहार काफी वर्षों से जाति आधारित राजनीति के चपेट में है। 1977 की जनक्रांति के गर्भ से पैदा हुये त्रिमूर्ति जो बिहार के वर्तमान राजनीति में भी सक्रिय हैं अर्थात् रामविलास पासवान, लालू प्रसाद और नितीश कुमार, राजनीतिक जमीं पर पैदा तो हुये थे सामाजिक समरसता, समाजवादी विचारधारा और न जाने क्या-क्या करने लेकिन “मंडल” के “कमंडल” से बाहर नहीं निकल पाये और “काजनीति” के बजाय “राजनीति” (अर्थात् जाति आधारित राजनीति) करने लगे। फिर इनलोगों ने खेल शुरू किया जाति के समीकरण का।
रामविलास पासवान ने अपने-आप को इस-तरह प्रतिस्थापित किया कि पासवान समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले वे एकमात्र नेता हैं और न सिर्फ पासवान समाज बल्कि बिहार में अपने-आप को दलितों का एकमात्र नेता घोषित किया और अपनी राजनैतिक नौकरी चलाने लगे।
लालू प्रसाद यादव मतलब यादवों के नेता इन्होंने तो बिहार में जातीय समीकरण की नई परिभाषा गढ़ दी और नाम दिया “MY समीकरण” मुस्लिम-यादव समीकरण और इसके बल पर इन्होंने दबंगई से बिहार में लगभग 15 वर्षों तक शासन किया।
फिर बारी थी हमारे सुशासन बाबू अर्थात् नितीश कुमार की यूँ तो पेटेंट कुर्मी समाज का था लेकिन इन्होंने भी सुशासन और सामाजिक समरसता के नाम पर नई जातीय समीकरण की रचना की। रामविलास पासवान के पेटेंट अधिकार को सीमित करने के लिए दलितों को दो श्रेणी में विभाजित कर दिया दलित और महादलित जिसने बिहार में रामविलास पासवान का गणित ही बिगाड़ दिया था।
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और भी कई जातीय क्षत्रप बिहार में सक्रिय हैं जैसे उपेंद्र कुशवाहा जो अपने-आप को कुशवाहा समाज का प्रतिनिधित्व करने की बात करते हैं तथा हाल में ही जितन राम मांझी और पप्पू यादव काफी सक्रिय हुये हैं। जितन राम मांझी जिन्हें नितीश कुमार ने अपने राजनैतिक फायदे के लिए मुख्यमंत्री बनाया था और फिर अपनी छवि को बिगड़ते देख जब उन्हें हटाने का फैसला किया तो श्री मांझी ने नितीश कुमार के सामने ही मोर्चा खोल दिया और अपने अपने-आप को महादलितों का नेता घोषित कर लिया। जहाँ तक बात है पप्पू यादव की, उन्होंने तो यादवों के सर्वमान्य नेता लालू प्रसाद के खिलाफ ही यादवों की अवहेलना करने का आरोप लगा मोर्चा खोल दिया और नई पार्टी बना खुद मैदान में आ गए। उनकी वर्तमान राजनैतिक प्रचारशैली काफी कुशल और श्री नरेंद्र मोदी की तरह प्रतीत होती है जिस तरह महज एक राज्य के मुख्यमंत्री ने अपने-आप को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पार्टी के सहमति के बगैर अपनी रणनीति के तहत समूचे देश में प्रचार अभियान चलाया जिसके कारण बीजेपी सरीखे पार्टी अपने वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर उन्हें उम्मीदवार घोषित कर दिया ठीक उसी प्रकार पप्पू यादव अबतक महज एक सांसद थे लेकिन इसबार की उनकी रणनीति बहुत ही शानदार है। इतनी संख्या में रैली, सभा, जनता का समर्थन और उनकी मेहनत देख तो यही लगता है कि चुनाव में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रहने वाली है।

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अब चुनाव के संबंध में बात करते हैं बिहार में लालू-राबड़ी के कथित 15 साल के जंगल राज्य को भाजपा-जदयु गठबंधन ने श्री नितीश कुमार के नेतृत्व में 2005 में ध्वस्त करने का कार्य किया और न सिर्फ सरकार सत्ता में आई बल्कि अपने कार्यकाल (2005-2010) के दौरान सराहनीय कार्य किया जिसकी मिसाल देश के अन्य राज्यों में दी जाने लगी। देश के अन्य भागों में रह-रहे बिहारियों को भी जान-में-जान आया कि अब लगता है बिहार सुरक्षित हाथों में है। श्री नितीश कुमार के उस कार्यकाल के कार्य को आम-जनमानस ने अगले चुनाव में प्रचंड बहुमत से मुहर लगा दी। अब नितीश जी उत्साही मूड में थे जिस विकास के कारण वो दुबारा बहुमत से आए थे उन्हें भूल काम-काज छोर प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगे जिससे इस कथित समाजवादी नेता की असली जाती-धर्म आधारित छवि सामने आ गई। आम-जनमानस ने लोकसभा चुनाव में उन्हें नकार दिया फिर क्या था बदला लेने में माहिर श्री कुमार जनता से बदला लेने की सोचने लगे इसी क्रम में उनकी नज़र श्री मांझी पर गई जिसमें उन्हें एक तीर से दो शिकार नज़र आने लगा। फिर क्या था श्री मांझी मुख्यमंत्री बना दिये गए और बिहार फिर पुरानी पटरी पर चल पड़ा जिसके जिम्मेदार श्री कुमार को माना जाने लगा। अपनी राजनैतिक जमीन बिहार में भी खिसकते देख श्री कुमार फिर मुख्यमंत्री पद पाने की कोशिश करने लगे लेकिन अब-तक श्री मांझी एक विशेष वर्ग के नेता बन चुके थे। इस प्रकार श्री कुमार दूसरे कार्यकाल में “काजनीति” के बजाय सिर्फ-और-सिर्फ “राजनीति” करते नजर आए। विगत लोकसभा चुनाव तक बिहार में आमने-सामने का मुक़ाबला होता था यथा एनडीए और यूपीए लेकिन आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए श्री पप्पू यादव ने जिस तरह से एंट्री मारी है मुक़ाबला रोचक होने वाला प्रतीत होता है। मुक़ाबला त्रिकोणीय होता प्रतीत होता है कल तक जो राजनीति में जानी-दुश्मन थे वो दोस्त और जो दोस्त थे आज जानी-दुश्मन बन गए हैं। अब एनडीए मतलब बीजेपी और जदयू नहीं बल्कि बीजेपी और एलजेपी और यूपीए मतलब कांग्रेस,राजद और जदयू हो गया।
हम आम-जनमानस तो बस यही चाहते हैं चाहे जितनी भी राजनीति हो उसके साथ काजनीति प्रमुखता से होनी चाहिए। बीते लगभग 68 सालों में अब आम-जनमानस थक चुकी है सबको मौका दे चुकी है लेकिन “वही ढाक के तीन पात” वाली कहावत चरितार्थ हुई है. इसलिए अब नए-नए शिगूफे सुनने के बजाय जनता की इच्छा काम देखने की है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.इससे कोसी टाइम्स का सहमत/असहमत होना जरूरी नहीं है)

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