यात्रा वृतांत-हिरण्यकश्यपु का सिकलिगढ़ किला,जहा भगवान बिष्णु ने नरसिंग अवतार लेकर हिरण्यकश्यपु का किया था वध

संजय कुमार सुमन  बनमनखी,पूर्णिया से लौटकर

यूं तो पूरा भारत ही आस्था श्रद्धा और विश्वास का एक मुख्य केंद्र है। यहां मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरजाघरों के ऐतिहासिक भवन व स्थल हैं जहां साल भर सैलानियों और श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इसी क्रम में अगर बनमनखी हिरण्यकश्यपु का सिकलिगढ़ धरहरा  का नाम लिया जाए तो अनायास ही मन श्रद्धा एवं भक्तिभाव से भर जाता है। यहीं पर भगवान बिष्णु ने नरसिंग अवतार लेकर हिरण्यकश्यपु का वध किया था का यह मंदिर ऐतिहासिक तो है ही, यहां के चप्पे-चप्पे में एक अद्भुत आकर्षण है। इसी आकर्षण और आस्था से वशीभूत होकर मैं निकल पड़ा बनमनखी  की यात्रा पर।मौका था एसपी मीडिया नेटवर्क प्रा.लिमिटेड दिल्ली द्वारा बनमनखी में आयोजित पत्रकार प्रशिक्षण सह सम्मान समारोह में शिरकत करने का ।यह यात्रा मेरे लिए एक आम यात्रा न होकर उल्लेखनीय एवं यादगार यात्रा बन गई।मेरे साथ मेरे पत्रकार मित्र धर्मेन्द्र कुमार मिश्रा,सिकन्दर सुमन और मुकेश कुमार साथ थे।हम सभी चारो मित्र कार से बनमनखी के लिए निकले।बिहारीगंज तक तो अच्छी सड़क मिली उसके बाद  के  सफर के बारे में सोचना पड़ा।जैसे ही प्रसादी चौक से आगे गाड़ी बढने लगी तो गाड़ी को एक लोगों ने हाथ दिया।शायद वो हमलोगों में किसी को पहचानता हो।गाड़ी रुकते ही वे पास आये और पूछा कहाँ जा रहे है।मित्र  धर्मेन्द्र ने ने कहा बस बनमनखी तक ही जाना है।उसने कहा मुरलीगंज के रास्ते जाना बेवकूफी होगी।उसकी बात सुनकर अचरज हुआ फिर मैंने पूछा क्यों ?तो उसने कहा सर मुरलीगंज से बनमनखी तक रास्ता बेहद ही खराब है।बारिश का मौषम है कहाँ गाड़ी खड़ी हो जाएगी कहना मुश्किल है।सड़क है ही नही।सड़क पर बड़े बड़े गड्ढे हैं।मैंने कहा वो सड़क तो एन एच 107 है।फिर उसने हस्ते हुए कहा कि सरजी सुशासन की सरकार है।आपको मेरे बात पर विश्वास ना हो तो जाकर देख लीजिये।सड़क आज से नही वर्षों से खराब है।फिर हमने मुरलीगंज के पत्रकार मित्र रविकांत को फोन लगाया तो उनकी सुन कर अवाक् रह गया।चुकी वो जो व्यक्ति बता रहा था वही बात रविकांत भी बताया।पास खड़े व्यक्ति ने थोडा मुस्कुराते हुए कहा क्या हुआ सर।मैंने कहा आपकी बात सच है फिर हमने पूछा दूसरा रास्ता बताइए।तब उसने दिबरा बाजार के रास्ते जाने की सलाह दी।फिर क्या था उसके बताये अनुसार गाड़ी चलने लगी।मौषम में तो गर्मी थी लेकिन हल्की बारिश भी होने लगी।रास्ते भर हमलोगों ने लगातर सड़क पर चर्चा करते उबड खाबर सड़क को पार करते बनमनखी पहुंचा।बनमनखी में आयोजित पत्रकार प्रशिक्षण सह सम्मान समारोह में शिरकत करने के बाद हमने रुख किया  सिकलिगढ़ धरहरा का।बनमनखी से तीन किलोमीटर की दुरी पर सिकलिगढ़ धरहरा बोर्ड सडक पर दिखा फिर क्या था हमलोगों की गाड़ी उस दिशा की और चल पड़ी।

पहुंचते ही सड़क पर बड़ा सा प्रवेश द्वार मिला।देखते ही दिल मचल उठा नरसिंह अवतार का किला और वहां के स्थल को देखने के लिए।इतना ही सोच पाया था कि गाड़ी मन्दिर परिसर में जा लगा।गाड़ी को मेरे मित्र धर्मेन्द्र जी चला रहे थे।मन्दिर परिसर पहुंचते ही मन मे जो उत्साह था वो काफूर हो गया।चूँकि जिस तरह का इतिहास बताया जा रहा है उस हिसाब से इसे ना तो सजाया जा सका था और ना ही संवारा जा सका था।कहीं ना कहीं राजनीतिक और प्रशासनिक भूल अवश्य हुई है।नहीं तो इस स्थल को और कुछ होना था।जबकि बिहार के पर्यटन मंत्री कृष्ण कुमार ऋषि जी यहीं से प्रतिनिधत्व करते हैं।खेर,अपनी सोच को यहीं विराम देकर स्थल की ओर कदम बढ़ाया।मन्दिर के अंदर प्रवेश करते ही बच्चों की शोर और बच्चों को मन्दिर के अंदर खेलते देखा।यह निश्चित ही मन्दिर व्यवस्थापक की उदासीनता थी नही तो क्या मजाल मन्दिर में कोई शोर कर पाये।मन्दिर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने एक मूर्ति हिरण्यकश्यपु वध करते नरसिंग अवतार का दिखा।सच्चे मन से प्रणाम किया और मन्दिर परिसर का मुआयना किया। मन्दिर में अन्य देवी देवताओं की मूर्ति मिली।उसके बाद हमलोग उस किला के पास गये जहाँ भगवान बिष्णु ने नरसिंग अवतार लेकर प्रकट हुए थे।किला पत्थर का था जो खुले आसमान के नीचे पड़ा था।चारों और से छोटी दीवार से घेर कर सुरक्षित कर दिया गया था पर जिस तरह की सुरक्षा और सुसज्जित इसे होना था उसका अभाव दिखा।खुले आसमान में पड़ा यह एतिहासिक किला को किसी देवदूत की जरूरत है जो इसे उद्धार कर सके।उसके बाद हमने इसके इतिहास को ढूढने का प्रयास किया।  आइये अब इसके इतिहास पर चर्चा करें।

धरहरा में है नरसिंग अवतार का किला 
देश में जहा जाए आपको चौक चौराहो पर मंदिर बने हुए मिल जायेंगे। अगर पूर्णिया की ही बात करे तो यहाँ भी सैकड़ो की तादाद में मंदिर है, जिसमे एक ऐसा भी मंदिर है जिसका ऐतिहासिक महत्व है और हिन्दू धर्म के आस्था से भी जुड़ा है लेकिन दु:ख की बात है कि इसकी परवाह न पूर्णिया वासियों को है और न ही बिहार सरकार को ।जी हाँ हम बात कर रहे है बनमनखी प्रखंड के सिकलिगढ़ किला का, जहा भगवान बिष्णु ने नरसिंग अवतार लेकर हिरण्यकश्यपु का वध किया था। प्राचीन कथा के अनुसार होलिका के मरने के बाद होली त्यौहार की शुरुआत हुई थी। बनमनखी के धरहरा में आज भी वह खम्बा मौजूद है जिसे फाड़ कर नरसिंग भगवान ने हिरण्यकश्यपु का वध किया ।आज यह जगह जीर्णशीर्ण पड़ा हुआ है, इस जगह को आज तक बिहार सरकार पर्यटन स्थल भी घोषित नहीं कर पायी है।


हालांकि बनमनखी प्रखंड के ही कुछ लोगो ने इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने का संकल्प लिया है। हर साल होली में यहाँ होलिका दहन का विशेष आयोजन किया जाता है, जिसे देखने के लिए देश विदेश से लोग आते है, लोगो का जज्बा देख कर तत्कालीन अनुमंडलाधिकारी डॉ मनोज कुमार ने इनका साथ दिया था और सभी के अथक प्रयास से भगवान विष्णु का एक भव्य मंदिर बना। जिस खम्बे से भगवान ने नरसिंग अवतार लिया था, उस जगह की घेराबंदी कर खम्बा को सुरक्षित रखा गया है।यहाँ के कोषाध्यक्ष का कहना है की इस धरोहर को बचाने के लिए विधायक से लेकर सांसद व पर्यटन मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक से गुहार लगा चुके हैं मगर आजतक आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला।

भक्त प्रलाद को लेकर सम्मत पर बैठी थी होलिका ,होली पर्व की उत्पत्ति पूर्णिया से हुई थी

हिन्दू पंचांग के अंतिम मास फाल्गुन की पूर्णिमा को होली का त्योहार मनाया जाता है। होली का त्योहार मनाए जाने के पीछ कई कथाएं प्रचलित हैं। उनमें सबसे प्रमुख कथा इस प्रकार है-
राजा हिरण्यकश्यपु राक्षसों का राजा था। उसका एक पुत्र था जिसका नाम प्रह्लाद था। वह भगवान विष्णु का परम भक्त था। राजा हिरण्यकश्यपु भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था। जब उसे पता चला कि प्रह्लाद विष्णु का भक्त है तो उसने प्रह्लाद को रोकने का काफी प्रयास किया लेकिन तब भी प्रह्लाद की भगवान विष्णु की भक्ति कम नहीं हुई। यह देखकर हिरण्यकश्यपु प्रह्लाद को यातनाएं देने लगा। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को पहाड़ से नीचे गिराया,हाथी के पैरों से कुचलने की कोशिश की किंतु भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ। हिरण्यकश्यपु की एक बहन थी-होलिका।उसे वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए होलिका से कहा। होलिका प्रह्लाद को गोद में बैठाकर आग में प्रवेश कई किंतु भगवान विष्णु की कृपा से हवा से तब भी भक्त प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। तभी से बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक रूप में होली का त्योहार मनाया जाने लगा।

नरसिंग अवतार का खम्बा आज भी मौजूद है 
 भगवान विष्णु ने नरसिंग अवतार लेकर वध हिरण्यकश्यपु का वध किया था ,हिरण्यकशिपु एक असुर था जिसकी कथा पुराणों में आती है। उसका वध नृसिंह अवतारी विष्णु द्वारा किया गया।हिरण्याक्ष उसका छोटा भाई था जिसका वध वाराह ने किया था। विष्णुपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष।हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसक प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य मेंविष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया।

क्या था वरदान

हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला।इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ।जिस खम्बे से भगवान ने अवतार लिया वह खम्बा आज भी पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के धरहरा में मौजूद है।
दिए जाते ये साक्ष्‍य
गुजरात के पोरबंदर में विशाल भारत मंदिर है। वहां लिखा है कि भगवान नरसिंह का अवतार स्थल सिकलीगढ़ धरहरा बिहार के पूर्णिया जिला के बनमनखी में है। धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के 31वें वर्ष के विशेषांक में भी सिकलीगढ़ का खास उल्लेख करते हुए इसे नरसिंह भगवान का अवतार स्थल बताया गया था। इस जगह प्रमाणिकता के लिए कई साक्ष्य हैं। यहीं हिरन नामक नदी बहती है। कुछ वर्षो पहले तक नरसिंह स्तंभ में एक सुराख हुआ करता था, जिसमें पत्थर डालने से वह हिरन नदी में पहुंच जाता था। इसी भूखंड पर भीमेश्वर महादेव का विशाल मंदिर है। मान्यताओं के मुताबिक हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष बराह क्षेत्र का राजा था जो अब नेपाल में पड़ता है।भागवत पुराण (सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय) में भी माणिक्य स्तंभ स्थल का जिक्र है। उसमें कहा गया है कि इसी खंभे से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी।
ब्रिटेन के अखबार में भी है स्तंभ का जिक्र
धरहरा के नरसिंह अवतार स्थली की जानकारी भले ही भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास न थी लेकिन इसका उल्लेख ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले “क्विक पेजेज द फ्रेंडशिप इन इनसायक्लोपीडिया” में भी इस बाबत खबर प्रकाशित हो चुकी है।वर्ष-1911में प्रकाशित गजेटियर में ओ मेली ने भी इसकी चर्चा करते हुए इसे मणिखंभ कहा है जानकारों की मानें तो अंग्रेजों ने अपने समय में इस खंभे को हाथियों से खिंचवाने की कोशिश की थी परंतु यह खंभा जमीन से नहीं निकल पाया और एक निश्चित कोण पर झुक गया।

पूर्णिया जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर सिकलीगढ़ के बुजुर्गों का कहना है कि प्राचीन काल में 400 एकड़ के दायरे में कई टीले थे, जो अब एक सौ एकड़ में सिमटकर रह गए हैं। पिछले दिनों इन टीलों की खुदाई में कई पुरातन वस्तुएं निकली थीं।

आस्था का प्रतीक है स्तंभधरहरा में भगवान नरसिंह मंदिर परिसर में है प्राचीन स्तंभ। ऐसी धारणा है कि यह स्तंभ उस चौखट का हिस्सा है जहां राजा हिरण्यकश्यप का वध हुआ। यह स्तंभ 12 फीट मोटा और करीब 65 डिग्री पर झुका हुआ है।

प्रह्लाद स्तंभ की सेवा के लिए बनाए गए प्रह्लाद स्तंभ 

विकास ट्रस्ट के अध्यक्ष बद्री प्रसाद साह बताते हैं कि यहां साधुओं का जमावड़ा शुरू से रहा है। वे कहते हैं कि भागवत पुराण (सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय) में भी माणिक्य स्तंभ स्थल का जिक्र है। उसमें कहा गया है कि इसी खंभे से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी।

राख से खेली जाती होली
धरहरा गांव के लोग रंग-गुलाल की जगह राख से होली खेलते हैं। उनका कहना है कि जब होलिका भस्म हुई थी और भक्त प्रह्लाद जलती चिता से सकुशल वापस लौट आए थे तो लोगों ने राख और मिट्टी लगाकर खुशियां मनाई थी। तभी से राख व मिट्टी से होली खेलने की शुरूआत हुई।

सांस्कृतिक महत्व

होली महोत्सव मनाने के पीछे लोगों की एक मजबूत सांस्कृतिक धारणा है। इस त्योहार का जश्न मनाने के पीछे विविध गाथाऍ लोगों का बुराई पर सच्चाई की शक्ति की जीत पर पूर्ण विश्वास है। लोग को विश्वास है कि परमात्मा हमेशा अपने प्रियजनों और सच्चे भक्तो को अपने बङे हाथो में रखते है। वे उन्हें बुरी शक्तियों से कभी भी हानि नहीं पहुँचने देते। यहां तक कि लोगों को अपने सभी पापों और समस्याओं को जलाने के लिए होलिका दहन के दौरान होलिका की पूजा करते हैं और बदले में बहुत खुशी और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं। होली महोत्सव मनाने के पीछे एक और सांस्कृतिक धारणा है, जब लोग अपने घर के लिए खेतों से नई फसल लाते है तो अपनी खुशी और आनन्द को व्यक्त करने के लिए होली का त्यौहार मनाते हैं।

सामाजिक महत्व

होली के त्यौहार का अपने आप में सामाजिक महत्व है, यह समाज में रहने वाले लोगों के लिए बहुत खुशी लाता है। यह सभी समस्याओं को दूर करके लोगों को बहुत करीब लाता है उनके बंधन को मजबूती प्रदान करता है। यह त्यौहार दुश्मनों को आजीवन दोस्तों के रूप में बदलता है साथ ही उम्र, जाति और धर्म के सभी भेदभावो को हटा देता है। एक दूसरे के लिए अपने प्यार और स्नेह दिखाने के लिए, वे अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए उपहार, मिठाई और बधाई कार्ड देते है। यह त्यौहार संबंधों को पुन: जीवित करने और मजबूती के टॉनिक के रूप में कार्य करता है, जो एक दूसरे को महान भावनात्मक बंधन में बांधता है।

साहित्य महत्व

साहित्य और संगीत होली वर्णन से पटे पड़े हैं। हमारे उत्सवों-त्योहारों में होली ही एकमात्र ऐसा पर्व है, जिस पर साहित्य में सर्वाधिक लिखा गया है। पौराणिक आख्यान हो या आदिकाल से लेकर आधुनिक साहित्य, हर तरफ कृष्ण की ‘ब्रज होरी’ रघुवीरा की ‘अवध होरी’ और शिव की ‘मसान होली’ का जिक्र है। राग और रंग होली के दो प्रमुख अंग हैं। सात रंगों के अलावा, सात सुरों की झनकार इसके हुलास को बढ़ाती है। गीत, फाग, होरी, धमार, रसिया, कबीर, जोगिरा, ध्रुपद, छोटे-बड़े खयालवाली ठुमरी, होली को रसमय बनाती है। उधर नजीर से लेकर नए दौर के शायरों तक की शायरी में होली के रंग मिल जाते हैं ।नजीर अकबराबादी होली से अभिभूत हैं।‘जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की… जब डफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।’ तो नए दौर के शायर आलोक श्रीवास्तव ने होली के रंगों को जिंदगी के आईने से देखा है। ‘सब रंग यहीं खेले सीखे, सब रंग यहीं देखे जी के, खुशरंग तबीयत के आगे सब रंग जमाने के फीके।’
वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि कहा गया, जिसमें अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है। मनु का जन्म भी इसी रोज हुआ था। अकबर और जोधाबाई और शाहजहां और नूरजहां के बीच भी होली खेलने का वृत्तांत मिलता है। यह सिलसिला अवध के नवाबों तक चला। वाजिद अली शाह टेसू के रंगों से भरी पिचकारी से होली खेला करते थे।

साहित्य में होली हर काल में रही है। सूरदास, रहीम, रसखान, मीरा, कबीर, बिहारी हर कहीं होली है। होली का एक और साहित्य है हास्य व्यंग्य का। बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ की साहित्य परंपरा इससे अछूती नहीं है। इन हास्य गोष्ठियों की जगह अब गाली-गलौजवाले सम्मेलनों ने ले ली है। जहां सत्ता प्रतिष्ठान पर तीखी टिप्पणी होती है। हालांकि ये सम्मेलन अश्लीलता की सीमा लांघते हैं, लेकिन चोट कुरीतियों पर करते हैं।

होली सिर्फ उद्दृंखलता का उत्सव नहीं है। वह व्यक्ति और समाज को साधने की भी शिक्षा देती है ।यह सामाजिक विषमताओं को दूर करने का त्योहार है। बच्चन कहते हैं, ‘भाव, विचार, तरंग अलग है, ढाल अलग है, ढंग अलग, आजादी है, जिसको चाहो आज उसे वर लो। होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो।’ फागुन में बूढ़े बाबा भी देवर लगते थे ।वक्त बदला है ।आज देवर भी बिना उम्र के बूढ़ा हो शराफत का उपदेश देता है।

जैविक महत्व

होली का त्यौहार अपने आप में स्वप्रमाणित जैविक महत्व रखता है। यह हमारे शरीर और मन पर बहुत लाभकारी प्रभाव डालता है, यह बहुत आनन्द और मस्ती लाता है। होली उत्सव का समय वैज्ञानिक रूप से सही होने का अनुमान है।

यह गर्मी के मौसम की शुरुआत और सर्दियों के मौसम के अंत में मनाया जाता है जब लोग स्वाभाविक रूप से आलसी और थका हुआ महसूस करते है। तो, इस समय होली शरीर की शिथिलता को प्रतिक्रिया करने के लिए बहुत सी गतिविधियॉ और खुशी लाती है। यह रंग खेलने, स्वादिष्ट व्यंजन खाने और परिवार के बड़ों से आशीर्वाद लेने से शरीर को बेहतर महसूस कराती है।

होली के त्यौहार पर होलिका दहन की परंपरा है। वैज्ञानिक रूप से यह वातावरण को सुरक्षित और स्वच्छ बनाती है क्योंकि सर्दियॉ और वसंत का मौसम के बैक्टीरियाओं के विकास के लिए आवश्यक वातावरण प्रदान करता है। पूरे देश में समाज के विभिन्न स्थानों पर होलिका दहन की प्रक्रिया से वातावरण का तापमान 145 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ जाता है जो बैक्टीरिया और अन्य हानिकारक कीटों को मारता है।

उसी समय लोग होलिका के चारों ओर एक घेरा बनाते है जो परिक्रमा के रूप में जाना जाता है जिस से उनके शरीर के बैक्टीरिया को मारने में मदद करता है। पूरी तरह से होलिका के जल जाने के बाद, लोग चंदन और नए आम के पत्तों को उसकी राख(जो भी विभूति के रूप में कहा जाता है) के साथ मिश्रण को अपने माथे पर लगाते है,जो उनके स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद करता है। इस पर्व पर रंग से खेलने के भी स्वयं के लाभ और महत्व है। यह शरीर और मन की स्वास्थता को बढ़ाता है। घर के वातावरण में कुछ सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करने और साथ ही मकड़ियों, मच्छरों को या दूसरों को कीड़ों से छुटकारा पाने के लिए घरों को साफ और स्वच्छ में बनाने की एक परंपरा है।